हम जानते हैं कि जीवित रहने के लिये हमें आहार की आवश्यकता होती है। आहार को जीवन का मूल भी कहा जाता है। स्वस्थ शरीर को पाने के लिये स्वस्थ आहार के साथ-साथ स्वस्थ पाचक तन्त्र की भी हमें आवश्यकता होती है। एक स्वस्थ पाचन तंत्र हमारे शरीर को बीमारियों से बचाता है और हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढाता है। आज हम यहां Human digestive system (मानव का पाचक तंत्र) के बारे में विस्तृत जानकारी देने जा रहे हैं।
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मानव पाचन तन्त्र (human digestive system)
- हमारे पाचक तंत्र को कई सारे आंतरिक अंग मिलकर बनाते हैं। जैसे हमारे दांत, जीभ, पाचक रस और अन्य ग्रंथियां। जब हम भोजन करना शुरू करते हैं तभी से हमारे पाचक अंग सक्रिय हो जाते है। हमारे भोजन करने से लेकर भोजन से बचे अपशिष्ट पदार्थों के त्याग करने तक हमारे पाचक तंत्र के मुख्यतः तीन चरण होते हैं। जिन्हें सेफिलिक चरण, जठरीय चरण और आंतरिक चरण कहा जाता है।
सेफिलिक चरण (cephalic stage)
- पाचन के पहले चरण में हमारे भोजन से आने वाली गन्ध के अनुसार ग्रंथियों से स्राव होना शुरू होता है। इस प्रक्रिया के चरणों में दांतों से भोजन को अच्छी तरह से चबाना, भोजन में लार का सही मात्रा में घुलना और पाचक रसों के माध्यम से सही अनुपात में रासायरिक रूप से विघटन किया जान शामिल है। सबसे पहले भोजन को दांतों के द्वारा बारीक चबाया जाता है। इसके बाद हमारी जीभ से ऐमिलेस और लाइपेस नाम के दो द्रव्य स्रावित होते हैं। ये दोनों द्रव्य भोजन को आहार नली के माध्यम से पेट में पंहुचाते हैं और आरंभिक पाचन की क्रिया को मुख में ही शुरू कर देते हैं। लार के अपेक्षित मिश्रण के बाद भोजन को ग्रास नली के माध्यम से निगल लिया जाता है।
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जठरीय चरण (gastric phase)
- पाचन के दूसरे चरण को जठरीय चरण कहा जाता है। यह चरण भोजन के ग्रास नली के द्वारा निगल लिये जाने से भोजने के पेट में पंहुचने पर शुरू होता है। यहां भोजन को जठर से निकलने वाले अम्ल के द्वारा अपचयित कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया भोजन की समस्त आवश्यक उर्जा के निकलने तक अनवरत चलती रहती है। इसके बाद भोजन पेट के ग्रहणी वाले हिस्से में पंहुच जाता है।
आंतरिक चरण (internal phase)
पाचन के तीसरे चरण में पचा हुआ भोजन अग्नाशय के द्वारा उत्पन्न होने वाले अम्ल के साथ मिल जाता है। और भोजन को और लचीला बनाते हुये पाचन की क्रिया में सहायक होता है। पाचन का तीसरा चरण पूरा हो जाने के बाद भोजन का बचा हुआ अपशिष्ट मलाशय में पंहुचता है। मलाशय में पंहुचने के बाद इस अपशिष्ट को गुदा के द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है।
बृहदान्त्र में जल और कुछ खनिजों को रक्त में पुनोवशोषित कर लिया जाता है। पाचन के अपशिष्ट उत्पादों (मल) को मलाशय से गुदा के माध्यम से त्याग किया जाता है।
हम जानते हैं कि हमारे शरीर का लगभग 70 प्रतिशत भाग में जल होता है। हमारे शरीर को उर्जावान रखने के लिये हमें जरूरी तत्वों जैसे कार्बोहाइड्रट, वसा, प्रोटीन और कई तरह के विटामिनों की आवश्यकता निरंतर रूप से होती है। शरीर की यह सारी जरूरतें हमें हमारे भोजन से प्राप्त होती हैं।
जब हम भोजन के रूप में आहार को ग्रहण करते हैं तो सीधे विटामिन और वसा को ग्रहण नहीं करते। बल्कि एक संतुलित और निर्धारित रूप से भोजन को ग्रहण करते हैं। इससे आगे का कार्य हमारा पाचक तंत्र कर देता है। पाचक तंत्र हमारे शरीर के अन्दर रासायनिक क्रिया के माध्यम से हमारे भोजन को उसके मूल तत्वों में अपघटित कर देता है। और बचे हुये अपशिष्ट पदार्थों को मल, मूत्र, पसीना और श्वास के माध्यम से शरीर से बाहर कर देता है।
पाचन का प्रयोजन है आहार के अवयवों को साधारण घटकों में विभक्त कर देना। यह कार्य मुँह में लार रस द्वारा, अजठर रस द्वारा, ग्रहणी में अग्न्याशय रस तथा पित्त द्वारा और क्षुद्रांत में आंत्ररस द्वारा संपादित होता है।
आरम्भिक पाचन (initial digestion)
मुख में आहार दाँतों द्वारा चबाकर सूक्ष्म कणों में विभक्त किया जाता है और उसमें लार मिलता रहता हैं, जिसमें टायलिन नामक एंज़ाइम मिला रहता है। यह रस मुँह के बाहर स्थित कपोलग्रंथि और अधोहन्वीय तथा अधोजिह्व ग्रंथियों में बनता हैं। इन ग्रंथियों से, विशेषकर आहार को चबाते समय उनकी वाहनियों द्वारा, लार रस मुँह में आता रहता है। इसकी क्रिया क्षारीय होती है। उसके टायलिन एंजाइम की रासायनिक क्रिया विशेषकर कार्बाेहाइड्रेट पर होती हैं, जिससे उसका स्टार्च पहले डेक्सट्रिन में और तत्पश्चात ग्लूकोज़ में परिवर्तित हो जाता है।
निगलने की क्रिया मुख के भीतर जिह्वा की पेशियों तथा ग्रसनी की पेशियों द्वारा होती है। जिह्वा की पेशियों के संकोच से जिह्वा ऊपर को उठकर तालु और जिह्वापष्ठ पर रखे हुए ग्रास को दबाती है, जो वहाँ से फिसलकर पीछे ग्रसनी से चला जाता है। जहाँ उसकी भित्तियों में स्थित वत्ताकार और अनुदैर्घ्य सूत्र अपने संकोच और विस्तार से उत्पन्न हुई आंत्रगति द्वारा उसको नाल के अंत तक पहुँचा देते हैं। और ग्रास जठरद्वार द्वारा आमाशय में प्रवेश करता है।
इस रस के दो मुख्य अवयव पेप्सिन नामक एंज़ाइम और हाइड्रोक्लोरिक अम्ल होते हैं। पेप्सिन की विशेष क्रिया प्रोटीनों पर होती है, जिसमें हाइड्रोक्लोरिक अम्ल सहायता करता है। इस क्रिया से प्रोटीन पहले फूल जाता है और फिर बाहर से गलने लगता है। इस कारण ग्रास का भीतर का भाग देर से गलता है। इसमें लार के टाइलिन एंज़ाइम की क्रिया उस समय तक होती रहती है जब तक लार का सारा क्षार आमाशय के आम्लिक रस द्वारा उदासीन नहीं हो जाता। जार का पाचन भी उत्तम रीति से नहीं होता। उससे रस का स्राव भी कम होता है। जठरीय रस की क्रिया विशेषकर प्रोटीन पर होती है। मांस, अंडा, मछली, दूध के पदार्थों आदि के आमाशय में पहुँचने पर रस का स्राव होता हैं।
अग्नाशय पाचन (pancreatic digestion)
पाचन से अग्न्याशय और यकृत इन दो बड़ी ग्रंथियों का बहुत संबंध है। अग्न्याशय में अग्न्याशय रस बनता है। यह बहुत ही प्रबल पाचक रस है, जिसकी क्रिया प्रोटीन, कार्बाेहाइड्रेट तथा वसा तीनों घटकों पर होती है। इसका निर्माण अग्न्याशय ग्रंथि की कोशिकाओं द्वारा होता है और सारे अग्न्याशय से एकत्र होकर यह रस एक वाहिनी द्वारा ग्रहणी में पहुँचता है। पिताशय से पित्त को लानेवाली वाहिनी इस अग्न्याशयवाहिनी से मिलकर सामान्य पित्तवाहिनी बन जाती है। उसी के मुख द्वारा अग्न्याशय और पित्त, दोनों रस, ग्रहणी में पहुँचते रहते हैं।
अग्न्याशय रस की प्रबल क्रिया विशेषकर प्रोटीन पर होती है। उससे प्रोटीन बिना फूले हुए ही घुलने लगता है। इस रस की क्रिया क्षारीय होती है। इस कारण पहले क्षारीय मेटाप्रोटीन बनती है। तब मेटाप्रोटीन से प्रोटियोज़ बनते हैं।
इस रस की दूसरी विशेषता यह है कि यदि ग्रहणी में पहुँचने से पूर्व ही अग्न्याशय की नलिका में इस रस को एकत्र कर लिया जाय, तो वह निष्क्रिय रहता है। उसकी प्रोटीन पर कोई क्रिया नहीं होती। जब वह ग्रहणी में आने पर आंत्रिक रस के साथ मिल जाता है, तभी उसमें प्रोटीन विघटित करने की प्रबल शक्ति उत्पन्न होती है। यह माना जाता है कि आंत्रिक रस का एंटेरोकाइनेज नामक एंज़ाइम उसको सक्रिय कर देता है।
पित्त (Bile)
- पेट के दाहिने भाग में ऊपर की ओर शरीर की यकृत नामक सबसे बड़ी ग्रंथि है, जो पित्त का निर्माण करती है। वहाँ से पित्त पित्ताशय में जाकर एकत्र हो जाता है और पाचन के समय एक वाहिनी द्वारा ग्रहणी में पहुँचता रहता है। यकृत से सीधा ग्रहणी में भी पहुँच सकता हैं। यह हरे रंग का गाढ़ा तरल द्रव्य होता है। वसा के पाचन में इससे सहायता मिलती है।इसके अतिरिक्त पित्त क्षारीय होता है
मलत्याग (Excretion)
- मलत्याग एक प्रतिवर्त क्रिया है, जिसका संपादन मल द्वार और मूत्र मार्ग के द्वारा होता है। जब मलाशय में मल एकत्र हो जाता है तो नियत समय पर मलाशय की भित्तियों से मेरुज्जू की कोशिकाओं में प्रेशर बनता है, जहाँ से वे कोशिकाओं में भेज दिए जाते हैं। वहाँ से नए प्रेशर प्रेरक तांत्रिक सूत्रों द्वारा मलाशय में पहुँचकर, वहाँ मल द्वार की पेशियों का विस्तार कर देते और मलाशय की भित्तियों की आंत्रगति बढ़ा देते हैं। इसी समय हमको मलत्याग की इच्छा होती है और हमारे बैठने पर तथा सँवरणी पेशियों के ढीली हो जाने पर मलत्याग हो जाता है। ऊपर की पेशियों के संकोच करने पर उदर के भीतर की दाब बढ़ने से भी मलत्याग में बहुत सहायता मिलती है।
मानव का पाचक तंत्र से सम्बंधित प्रश्न
पाचन तंत्र में कौन कौन से अंग होते हैं?
मुख, आहार नाल, पेट, बडी आंत, छोटी आंत, यकृत, आमाशय, अग्न्याशय और मलाशय तथा मलद्वार अंगों से मिलकर संपूर्ण पाचन तंत्र बनता है।
पाचन तंत्र को अंग्रेजी में क्या कहते हैं?
अंग्रेजी में पाचन तंत्र को Digestive System कहा जाता है।